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कविता

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं

सूरदास


ऊधौ, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
बृंदावन गोकुल बन उपवन, सघन कुंज की छाहीं।
प्रात समय माता जसुमति, अरु नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दह्यो सजायौ, अति हित साथ खवावत।
गोपी ग्वाल बाल सँग खेलत, सब दिन हँसत सिरात।
सूरदास, धनि धनि ब्रजबासी, जिनसौं हित जदु-तात।।


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हिंदी समय में सूरदास की रचनाएँ